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एक अनाम रंग के लिए / मोहन कुमार डहेरिया

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कौंधता है जो अक्सर मेरे सपनों में
दरअसल वह एक रंग है
न सफेद न काला, लाल या नीला
विशेषण से परे अभी उसकी पहचान

एक बगीचे में बैठा हूँ मैं
देख रहा हूँ रंगों की उन्मुक्त तथा स्पर्धाहीन दुनिया
प्रकृति में मान लें अगर रंगों के सौहार्द को अपवाद
तो उलट-पुलट गया है अब रंगों का मनोविज्ञान
जकड़ चुके सब किसी-न-किसी मुहावरे में

एक झुलस रहा है अपनी ही प्रखरता की लपटों में
करते-करते शान्ति का स्वाँग एक खो बैठा खुद का चेहरा
एक को मान लिया गया किसी नस्ल विशेष का पर्याय
घृणा से थूका जाता वह जहाँ-तहाँ
कुछ भरना चाहते थे आसमान में उड़ानें लम्बी
विकसित ही नहीं हो पाये पर उनके डैने

दिखाई नहीं देता अभी तो कहीं
व्याकुल हूँ जिस रंग के लिए मैं
कहीं दब तो नहीं गया रोशनी की इन बौछारों में
बैठा तो नहीं बादलों के पीछे किसी ऊँचे सिंहासन पर
गिनता जीवन के कुण्ड में टपकती रक्त की एक-एक बूँद
इतना तो तय है
गहरी यातनाओं में भी कम न होता होगा उसके चेहरे का तेज
न क्रोधातिरेक में उफनता होगा बरसाती नाले-सा

वैसे भी इतने भव्य आजकल हमारे उत्सव
पाशविकता की हद तक जा पहुँचती है अक्सर रंगों की चमक
फैली हैं चित्रों की दुनिया में
रंगों को लेकर तरह-तरह की शंकाएँ और अफवाहें
होगा फिर भी
इसी पृथ्वी पर कहीं-न-कहीं वह अब भी।