भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चरवाहे का जवाब / अली अकबर नातिक़

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ३ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 08:07, 4 नवम्बर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अली अकबर नातिक़ }} {{KKCatNazm}} <poem> आग बराब...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आग बराबर फेंक रहा था सूरज धरती वालों पर
तपती ज़मीं पर लू के बगूले ख़ाक उड़ाते फिरते थे
नहर किनारे उजड़े उजड़े पेड़ खड़े थे कीकर के
जिन पर धूप हँसा करती है वैसे उन के साए थे
इक चरवाहा भेड़ें ले कर जिन के नीचे बैठा था
सर पर मैला साफ़ा था और कुल्हाड़ी थी हाथों में
चलते चलते चरवाहे से मैं ने इतना पूछ लिया
ऐ भेड़ों के रखवाले क्या लोग यहाँ के दाना हैं
क्या से सच है याँ का हाकिम नेक बहुत और आदिल है
सर को झफका कर धुँदली आँखों वाला धीमे से बोला
बादल कम कम आते हैं और बारिश कब से रूठी है
नहरें बंद पड़ी हैं जब से सारी धरती सूखी है
कुछ सालों से कीकर पर भी फल्लियाँ कम ही लगती हैं
मेरी भेड़ें प्यासी भी हैं मेरी भेड़ें भूकी हैं