भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मिरे चराग़ बुझ गए / अली अकबर नातिक़
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ३ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 08:09, 4 नवम्बर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अली अकबर नातिक़ }} {{KKCatNazm}} <poem> मिरे चर...' के साथ नया पन्ना बनाया)
मिरे चराग़ बुझ गए
हवाएँ साज़-बाज़ कर रही थीं जिन दिनों सियाह-रात से
उन्ही सियाह-साअतों में सानेहा हुआ
तमाम आईने ग़ुबार से बे-नूर हो गए
सरा के चार सम्त हौल-नाक शब की ख़ामुशी
चमकती आँख वाले भेड़ियों के ग़ोल ले के आ गई
क़बा-ए-ज़िंदगी वो फाड़ ले गए नोकीले नाख़ुनों से उस तरह
कि रूह चीथड़ों में बट गई
ख़राब मौसमों की चाल थी कि आस पास बाँबियों से
आ गए निकल के साँप झूमते हुए
बुझा दिया सफ़ेद रौशनी का दिल
मदद को मैं पुकारता था और देखती थीं पुतलियाँ तमाशा ग़ौर से
मगर न आईं बीन ले के अम्न वाली बस्तियों से जोगियों की टोलियाँ
सियाह आँधियों का ज़ोर कब तलक सहारते
मिरे चराग़ बुझ गए