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वो दौर क़रीब आ रहा है / अतहर नफीस
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वो दौर क़रीब आ रहा है
जब दाद-ए-हुनर न मिल सकेगी
उस शब का नुज़ूल हो रहा है
जिस शब की सहर न मिल सकेगी
पूछोगे हर इक से हम कहाँ हैं
और अपनी ख़बर न मिल सकेगी
आसाँ भी न होगा घर में रहना
तौफ़िक़-ए-सफ़र न मिल सकेगी
ख़ंजर सी ज़ुबाँ का ज़ख़्म खा के
मरहम सी नज़र न मिल सकेगी
इस राह-ए-सफ़र मे साया-ए-अफ़्गन
इक शाख़-ए-शजर न मिल सकेगी
जाओगे किसी की अंजुमन में
पर उस से नज़र न मिल सकेगी
इक जिंस-ए-वफ़ा है जिस को हर-सू
ढूँढोगे मगर न मिल सकेगी
सैलाब-ए-हवस उमड़ रहा है
इक तिश्ना-नज़र न मिल सकेगी