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शाम की पुरवाई / अलीना इतरत

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आज परवाज़ ख़यालों ने जुदा सी पाई
आज फिर भूली हुई याद किसी की आई
जिस्म में साज़ खनकने का हुआ है एहसास
और बजने लगी सरगम सी कहीं ज़ेहन के पास
मेरी ज़ुल्फ़ों ने बिखर कर कोई सरगोशी की
कैसी आवाज़ हुई आज ये ख़ामोशी की
तेरी आहट तिरा अंदाज़ जुदा है अब भी
तू ही दुनिया-ए-मोहब्बत की सदा है अब भी
इस तसव्वुर पे ‘अलीना’ को हँसी आई है
ये कोई और नहीं शाम की पुरवाई है