भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

फ़स्ल-ए-राएगाँ / अज़ीज़ क़ैसी

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ३ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:11, 22 नवम्बर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अज़ीज़ क़ैसी }} {{KKCatNazm}} <poem> हर बरस इन द...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हर बरस इन दिनों मैं कहीं भी रहूँ
सिलसिले अब्र के
सुस्त-रौ तेज़-रौ क़ाफ़िले अब्र के
यूँही आते हैं क़ुलज़ुम लुटाते हुए
यूँही जाते हैं ये उन का दस्तूर है
लेकिन अब के बरस
मैं अकेला सर-ए-दश्त तिश्ना खड़ा
उन को रह रह के आवाज़ देता रहा
मुझ को भी साथ लेते चलो
क़ाफ़िला छुट गया है मिरा

सिलसिले अब्र के
क़ाफ़िले अब्र के
यूँही आते रहे
यूँही जाते रहे
कब से आँखों को हसरत है बरसात ही