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महानगर का नरक / व्लदीमिर मयकोव्स्की

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खिड़कियाँ बाँट देती हैं शहर के विशाल नरक को
छोटे-छोटे नरकों में
बिजली के खम्भों के नीचे लाल राक्षस मोटर गाड़ियाँ
ठीक कान के ऊपर बजाती हैं हार्न ।

और उधर, साइनबोर्ड के नीचे, कर्ज़ पर लाई गई मछली के साथ
गिरा दिया गया एक बूढ़ा, झुकता है ढूँढ़ने
अपनी ऐनक, ज़ोर-ज़ोर से सुबकता है जब एक ट्राम
झटके खाती, चौंधिया देती है आँखों को
साँझ के धुँधलके में ।

गगनचुम्बी इमारतों के पिछवाड़े, भरे हुए धधकते अयस्कों से
जहाँ खड़खड़ाते रहते हैं गाड़ियों के इस्पात
एक हवाई-जहाज़ गिरता है आख़िरी चीख़ के साथ
सूर्य की दुखती आँखों की टपकती कीच में ।

तभी रोशनी के कम्बल में पड़ती हैं सलवटें
अपनी वासना को बाहर उलीचती है रात
लम्पट और पियक्कड़ !
और गली के सूर्य के उस पार सबसे करुण दृश्य
थुलथुल चाँद को डुबोता है अवांछित कबाड़ में ।

1913