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दग्ध बीज (1) / विमल राजस्थानी

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रहूँ सदा प्रयासरत हे हरि!
दग्ध बीज बन जाऊँ मैं
क्षण-पल का समूह यह जीवन
तभी सफल कर पाऊँ मैं

जल से दूर चने का जब
लपटों से जुड़ता नाता है
खो देता अंकुरण - शक्ति
वह दग्ध बीज बन जाता है

हे प्रभु! तुमने राह बता दी
चलना तो हमको ही है
त्याग - तपास्या-हिमखोहों में
गलना तो हमको ही है

जब तक नहीं वक्र मन -रेखा
सहज - सरल बन जायेगी
जन्म - मरण की इस कारा से
मुक्ति नहीं मिल पायेगी

ये विचार तो कंकर -से हैं
झील तिलमिला जाती है
नक्षत्रों की परछाहीं को
लोल लहर भरमाती है

रह निष्कर्म शुभ - अशुभ दोनों-
की छाया से दूर रहूँ
सहस्रार से झरता अमृत -
पिऊँ , नशे में चूर रहूँ

जल की भाँति कर्म कर्म-फल छलनी
में हे हरि! छन जाऊँ मैं
मिटा द्वैत का भेद, अंत में-
‘पिया - मिलन - धन, पाऊँ मैं