तुम गयी रात की नींद गयी
उठते-गिरते कुविचार कई
(1)
मन तो अल्हड़ है, चंचल है
हिम-शिखरों से उछला जल है
पल भर में इन्द्र-धनुष जैसा
क्षण भर में रीता बादल है
(2)
मन को बहलाना पड़ता है
रह-रह समझाना पड़ता है
फिर भी यह बात न माने तो-
भावुक कवि की परवशता है
(3)
चिंतन की आकुल झंझा में
तिनके-सा उड़-उड़ जाता है
अपने सूने-से खोते तक
मन-पंछी मुड़-मुड़ आता है
हारा विवेक, चिन्ताओ की काली आँधी हो गयी जयी
तुम गयी, रात की नींद गयी
हलचल करते कुविचार कई
(4)
यौवन ने वर्तमान जाना
थीड़ा अतीत को पहचाना
कल क्या होगा सोचा न कभी
कल का न बुना ताना-बाना
(5)
पर अब जब ‘रात’ निकट आई
रूग्णता, विराट, विकट आई
जब झाँसा देने लगी जिंदगी-
की यह काली परछाँई
(6)
पलभर का भी यह विरह झेलने-
की जब शक्ति न होती हो
जब गुजरे कल की मृदु यादें-
ऊसर में आँसू बोती हों
मन को फिर-फिर समझाता हूँ- जो बीत गयी-वह बात गयी
तुम गयी रात की नींद गयी
आते - जाते कुविचार कई
तुम गयी, रात की नींद गयी