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क्यों वह प्रिय आता पार नहीं! / महादेवी वर्मा

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क्यों वह प्रिय आता पार नहीं!

शशि के दर्पण देख देख,
मैंने सुलझाये तिमिर-केश;
गूँथे चुन तारक-पारिजात,
अवगुण्ठन कर किरणें अशेष;

क्यों आज रिझा पाया उसको
मेरा अभिनव श्रृंगार नहीं?

स्मित से कर फीके अधर अरुण,
गति के जावक से चरण लाल,
स्वप्नों से गीली पलक आँज,
सीमन्त तजा ली अश्रु-माल;

स्पन्दन मिस प्रतिपल भेज रही
क्या युग युग से मनुहार नहीं?

मैं आज चुपा आई चातक,
मैं आज सुला आई कोकिल;
कण्टकित मौलश्री हरसिंगार,
रोके हैं अपने शिथिल!

सोया समीर नीरव जग पर
स्मृतियों का भी मृदु भार नहीं!

रूँधे हैं, सिहरा सा दिगन्त,
नत पाटलदल से मृदु बादल;
उस पार रुका आलोक-यान,
इस पार प्राण का कोलाहल!

बेसुध निद्रा है आज बुने-
जाते श्वासों के तार नहीं!

दिन-रात पथिक थक गए लौट,
फिर गए मना निमिष हार;
पाथेय मुझे सुधि मधुर एक,
है विरह पन्थ सूना अपार!

फिर कौन कह रहा है सूना
अब तक मेरा अभिसार नहीं?