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अन्तिम रुदाली को आवाज़ दो / विपिन चौधरी

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पहलेपन की सौंन्धियाई महक और आख़िरीपन की गीली थकावट को याद रखते हुए
सब भूल गए इस भीषण अन्तराल को
हमारी कमज़ोर स्वर-लहरियों पर क्या गुज़री
लहलहाती भूख नहीं थी यह जो
मोडुलर रसोई की आधुनिक चिमनी तले या कि
सफदरजंग फ्लाई-ओवर की दो ईंटों के चूल्हे पर रोटी बेलती औरत की नाभि से दो उँगल ऊपर उठ रही थी
वह जीवित आकृतियो का पाखण्ड था जो सदियों से सर चढ़ कर बोलता रहा था

छठी इन्द्रियाँ बिना हरकत किए
आत्मा का अल्पज्ञात रहस्य बताती चलती थीं कि
क्यों कुछ कहते-कहते रूक जाती रूहें
लम्बी ठण्डी साँस ले
अधखुले दरवाज़ों की ओट में दाँतों तली उँगली दबाती आत्माएँ
किस सोच मे पड़ कर शिथिल हो जाती हैं

सच के पाँव मज़बूत थे
वह बिना डोले बोल देता था कि हम
अपनी चल-अचल सम्पत्ति दुपट्टे के किनारे बाँध
नंगे पाँव तपती रेत पर चल देती हैं
अपने वाष्पित आँसुओं को पीछे बिसराती हुई

किसी पश्चिमी गर्म प्रदेश में अपने दामन पर पैबन्द टाँके
भरी दुपहरिया में भरोटी धोई
नून गँठे के साथ खेत की मुण्डेर पर उकडूँ बैठ टूक तोडे हमने

होठों पर पपड़ी जमा देने वाली सर्द हवाओ मे
सीढ़ी चढ़ाई और रपटीली गहराई बिना नापे तय की

हमे सबसे शान्त मुहावरों की आड़ मे सहलाया गया

हम चकित थीं
ताउम्र पानी ढो कर भी
हमारी बावडी कैसे सूखी की सूखी रह गई

ख़ुशियों की गन्ध को अपने भीतर बन्द कर ख़ुश हो लेतीं
बुरे वक़्त को सिल-बट्टे से रगड़ डालने का उपक्रम करतीं
पर हमारे सुकून पर काली बिल्ली ने गेडा मारा
और ये चन्द ख़ुशियाँ भी उस रोज़ मारी गईं

जब भरे-पूरे उठान वाली सुबह
नाचते-गाते शोर मचाते ढेर सारे बहेलिये आए
हमारे कानों में चन्द मीठी बातें कर
चालाकी से बारीक़ बुनावट वाला रेशमी जाल हमे ओढ़ा, बगल मे मुस्तैद हो गए
वो दिन है और आज का दिन है
हम रोना भूले हुए है
जीने का अन्तिम सहारा हमसे छूट गया है
कोई बक्शो हमे
अन्तिम रुदाली को ज़रा जल्दी आवाज़ दो.