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लब पे हर लय सरगमी रहे / प्रेमरंजन अनिमेष
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लब पे हर लय सरगमी रहे
कोई धुन क्यूँ मातमी रहे
दिल ही हो सबकी क़िताबे-पाक
सबको पढ़ना लाज़मी रहे
सूखे मत बाहर नदी कोई
आँखों में इतनी नमी रहे
आदमी को ढूँढ़े आदमी
सबमें ऐसी कुछ कमी रहे
रख हरी इनसानियत की पौध
और सब कुछ मौसमी रहे
शर्त इतनी सी खु़दाई की
आदमी - सा आदमी रहे
दुधमुँहे बच्चे के होंठों पर
हश्र तक धरती थमी रहे
तुझसे मिलने आऊँ जब 'अनिमेष'
ओस पत्तों पर जमी रहे