भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नीमों में कल्ले / गुलाब सिंह

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:23, 6 जनवरी 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गुलाब सिंह |संग्रह=बाँस-वन और बाँ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

फूट रहे नीमों में कल्ले
फिर सींकें मोड़ कर
रिया सिया
रच-रच बनवायेंगी छल्ले।

घुँघरू बिन पायल-
पाजेब पड़ी पाँवों में
दो पल के सुख पहने
जनम के अभावों ने

खुशियों से गूँज उठे
गाँव-घर-मुहल्ले।

बातों ही बातों में
महल बना एक किता,
साथ-साथ उठ बैठे
हँसते माता-पिता,

देहरी पर बहू जैसे
बैठी तिनतल्ले।

अब की फिर गम खायें
नथ-झुलनी-झुमके
बौंड़र के तिनके
तन छुएँ घूम-घूम के

गरदीली आँखों में
सपनों के बुल्ले।