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पारदर्शी किला / विनोद दास
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यह एक पारदर्शी किला है
घंटी चीख़ती है
रपटता है बीड़ी बुझाकर
बंद कमरे की तरफ़
स्टूल पर बैठा आदमी
घंटी इंतज़ार नहीं कर सकती
कर सकती है नींद हराम
बिगाड़ सकती है जीवन
देर होने पर
इस बंद कमरे में
आख़िर किस पर बहस होती है
अक्सर एक सु्न्दरी होती है वहाँ
एक पेंसिल और छोटी कॉपी के साथ
वे चाय पीते हैं हँसते हैं लगातार
स्टूल पर बैठा आदमी सोचता है
क्या हँसना इतना आसान है
स्टूल पर बैठा आदमी
हँस रहा है
पर उसके हँसने की शक़्ल
रोने से इस क़दर मिलती क्यों है