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पेड़ : हम - तीन / गुलाब सिंह

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(किनारे की नियति)

तोड़ कर पत्थर नदी निकली
बहे झरने
सोचते हैं पेड़ तट के
हमें क्या करने!

जब उठेंगे जल सतह पर
लहर के परचम,
खड़े रहकर धार के-
तेवर छुएँगे हम,

पीठ पर रख पाँव
आए दिन घड़े भरने!

फिर उफनती खिलखिलाती
हँसी गूँजेगी,
घाव सोयी बस्तियों के
नदी छू लेगी,

बीच से बचकर लगेंगी-
घाट से नावें गुज़रने।

जड़ों की मिट्टी बहेगी
हम झुकेंगे और
कौन रोकेगा किनारों की-
नियति का दौर

उठेगा चुपचाप कोई
फिर जगह भरने।