भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

साध-असाध का अंग / कबीर

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:41, 20 नवम्बर 2007 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कबीर }} जेता मीठा बोलणा, तेता साध न जाणि ।<br> पहली थाह दिख...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जेता मीठा बोलणा, तेता साध न जाणि ।
पहली थाह दिखाइ करि, उंडै देसी आणि ॥1॥

भावार्थ - उनको वैसा साधु न समझो, जैसा और जितना वे मीठा बोलते हैं । पहले तो नदी की थाह बता देते हैं कि कितनी और कहाँ है, पर अन्त में वे गहरे में डुबो देते हैं । [सो मीठी-मीठी बातों में न आकर अपने स्वयं के विवेक से काम लिया जाये ।]

उज्ज्वल देखि न धीजिये, बग ज्यूं मांडै ध्यान ।
धौरे बैठि चपेटसी, यूं ले बूड़ै ग्यान ॥2॥

भावार्थ - ऊपर-ऊपर की उज्ज्वलता को देखकर न भूल जाओ, उस पर विश्वास न करो । उज्ज्वल पंखों वाला बगुला ध्यान लगाये बैठा है, कोई भी जीव-जन्तु पास गया, तो उसकी चपेट से छूटने का नहीं ।[दम्भी का दिया ज्ञान भी मंझधार में डुबो देगा ।]

`कबीर' संगत साध की, कदे न निरफल होइ ।
चंदन होसी बांवना,नींब न कहसी कोइ ॥3॥

भावार्थ - कबीर कहते हैं - साधु की संगति कभी भी व्यर्थ नहीं जाती, उससे सुफल मिलता ही है । चन्दन का वृक्ष बावना अर्थात् छोटा-सा होता है, पर उसे कोई नीम नहीं कहता, यद्यपि वह कहीं अधिक बड़ा होता है ।

`कबीर' संगति साध की, बेगि करीजै जाइ ।
दुर्मति दूरि गंवाइसी, देसी सुमति बताइ ॥4॥

भावार्थ - साधु की संगति जल्दी ही करो, भाई, नहीं तो समय निकल जायगा । तुम्हारी दुर्बुद्धि उससे दूर हो जायगी और वह तुम्हें सुबुद्धि का रास्ता पकड़ा देगी ।

मथुरा जाउ भावै द्वारिका, भावै जाउ जगनाथ ।
साध-संगति हरि-भगति बिन, कछू न आवै हाथ ॥5॥

भावार्थ - तुम मथुरा जाओ, चाहे द्वारिका, चाहे जगन्नाथपुरी, बिना साधु-संगति और हरि-भक्ति के कुछ भी हाथ आने का नहीं ।


मेरे संगी दोइ जणा, एक वैष्णौ एक राम ।
वो है दाता मुकति का, वो सुमिरावै नाम ॥6॥

भावार्थ - मेरे तो ये दो ही संगी साथी हैं - एक तो वैष्णव, और दूसरा राम । राम जहाँ मुक्ति का दाता है, वहाँ वैष्णव नाम-स्मरण कराता है । तब और किसी साथी से मुझे क्या लेना-देना ?

`कबीर' बन बन में फिरा, कारणि अपणैं राम ।
राम सरीखे जन मिले, तिन सारे सबरे काम ॥7॥

भावार्थ -कबीर कहते हैं - अपने राम को ढूँढ़ते-ढूँढ़ते एक बन में से मैं दूसरे बन में गया, जब वहाँ मुझे स्वयं राम के सरीखे भक्त मिल गये, तो उहोंने मेरे सारे काम बना दिये । मेरा वन वन का भटकना तभी सफल हुआ ।

जानि बूझि सांचहि तजै, करैं झूठ सूं नेहु ।
ताकी संगति रामजी, सुपिनें ही जिनि देहु ॥8॥

भावार्थ -जो मनुष्य जान-बूझकर सत्य को छोड़ देता है, और असत्य से नाता जोड़ लेता है । हे राम! सपने में भी कभी मुझे उसका साथ न देना ।

`कबीर' तास मिलाइ, जास हियाली तू बसै ।
नहिंतर बेगि उठाइ, नित का गंजन को सहै ॥9॥

भावार्थ - कबीर कहते हैं - मेरे साईं, मुझे तू किसी ऐसे से मिला दे, जिसके हृदय में तू बस रहा हो, नहीं तो दुनिया से मुझे जल्दी ही उठा ले ।रोज-रोज की यह पीड़ा कौन सहे ?