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एक अजीब अन्धकार / जीवनानंद दास
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पृथ्वी के इस अजीब अन्धेरे में आज
दृष्टि है सचमुच अन्धों के पास ।
जिन के हृदयों में प्रेम नहीं, करुणा नहीं;
उन्हीं का है साम्राज्य ।
भरोसा है जिन्हें आज भी आदमी
पर सहज; चाहते हैं जो प्रकाश-प्रेम—
सच निरन्तर खोज;
भेड़ियों और गिद्दों की लगी है उन्हीं
पर दॄष्टि — खाते हैं उन्हीं को ये !
(यह कविता ’श्रेष्ठ कविता’ संग्रह से)