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वैसा ही विस्मय / जीवनानंद दास
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दिन बीते आते हैं सियार,
चुपके से, जंगलों पहाड़ों में — खोज में
शिकार की — कई-कई जन्मों से; सघन
अन्धेरे को भेद कर पहुँचते सहसा — खुले
आकाश तले; देखते हैं सोती हुई — चाँदनी में —
बर्फ़ की राशि को —
ऐसे में, अगर कहीं
कर पाते वे भी प्रकाशित घटनाएँ
सब मन की — मनुष्यों की तरह
उतरता उन के मन में जो विस्मय तब
गहरी एक पीड़ा-सा — उसी तरह
जीवन वसन्त के बाद देख तुम्हें सहसा,
अचरज से होती है सिहरन एक गहरी
रग-रग में — मुझे !
(यह कविता ’सातटि तारार तिमिर’ कविता-संग्रह से)