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यहाँ लेटी है सरोजिनी / जीवनानंद दास
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यहाँ लेटी है सरोजिनी; (कह नहीं सकता
अब भी लेटी है क्या) लेटी रही है बहुत
दिनों तक — फिर शायद उठकर चली गई है
दूर — बादलों के बीच —
वहीं, जहा होता है अँधेरा ख़त्म, झिलमिल करता
है प्रकाश !
चली ही गई है सरोजिनी ?
बिना सीढ़ी के; चिड़ियों के पंखों के बिना ?
या फिर वह धरती की ज्यामिति का ढूह है आज !
कहती है प्रेत-छाया ज्यामिति की — मुझे तो नहीं
मालूम !
शाम को खड़ा है प्रकाश एक केसरिया रंग
का लगकर आकाश से —
अदृश्य एक बिजली-सा;
चेहरे पर है जिसके एक चतुर धूर्त हँसी !