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गूँगी दहलीजें / उमा अर्पिता
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उम्र की दहलीजें
लांघते-लांघते, जब
देह का हास्य
चुकने लगता है, तब
मन में लगी
अवसाद की गाँठों का बंधन
कुछ और कस जाता है!
झूठे दंभ को
सफलतापूर्वक जीते चले जाने के
अभिमान में, जब चारों ओर से
कटने लगती है जिंदगी, तब
हर पल जलते
मीठे-मीठे सपनों का
ज़हर भरा धुआँ
भीतर तक कड़वा जाता है
सूने हो चले
यादों के जंगल में, जब
कोई पहचानी-सी
आवाज नहीं गूँजती
तब--
खामोशियों के तीखे व्यंग्य
सहते-सहते/रोम-रोम
जड़ हो जाता है।
तुम्हीं कहो-
ऐसे में
यह गूँगा मन
किसे पुकारे...?