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आस्था / धूप के गुनगुने अहसास / उमा अर्पिता
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तुम्हारी यादों के बोझ से
जब-जब मेरे हृदय का
ज्वालामुखी फटा है, तब-तब
उससे दर्द का एक
गर्म स्रोत बह निकला है।
जानते हो...
आज तक
मैंने उसे जमने नहीं दिया,
इस आस्था के साथ कि
कभी तो तुम्हारा भाव-स्रोत भी
इससे आ मिलेगा और तब
हम दोनों--
पीछे के महकते लता-कुंजों में टँगी
उन शामों को गिनेंगे, जो
हमारे कहकहों से लदी हैं,
ऐसे में
शाखाओं से झाँकता सूरज
हम पर व्यंग्य से नहीं हँसेगा
और हम
अपने सपनों को
खुलकर जी सकेंगे।