भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कविता के द्वारा हस्त्तक्षेप / धूमिल

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:39, 21 नवम्बर 2007 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=धूमिल }} जब मै अपनें ही जैसे किसी आदमी से बात करता हूँ,<br>...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जब मै अपनें ही जैसे किसी आदमी से बात करता हूँ,
साक्षर है पर समझदार नहीं है । समझ है लेकिन
साहस नहीं है । वह अपने खिलाफ चलाने वाली
साजिश का विरोध खुल कर नही कर पाता ।
और इस कमजोरी को मैं जानता हूँ । लेकिन इसलिये
वह आम मामूली आदमी मेरा साधन नहीं है
यह मेरे अनुभव का सहभागी है, बनता है ।

जब मैं उसे भूख और नफ़रत और प्यार और ज़िंदगी
का मतलब समझाता हूँ-और मुझे कविता में
आसानी होती है-जब मैं ठहरे हुए को हरकत
में लाता हूँ -एक उदासी टूटती है,ठंडापन ख़त्म
होता है और वह ज़िंदगी के ताप से भर जाता है ।

मेरे शब्द उसे ज़िंदगी के कई-स्तरों पर खुद को
पुनरीक्षण का अवसर देते हैं, वह बीते हुये वर्षों
को एक- एक कर खोलता है ।
वर्तमान को और पारदर्शी पाता है उसके आर-पार
देखता है । और इस तरह अकेला आदमी भी
अनेक कालों और अनेक संबंधों मे एक समूह
मे बदल जाता है । मेरी कविता इस तरह अकेले को
सामूहिकता देती है और समूह को साहसिकता ।

इस तरह कविता में शब्दों के ज़रिये एक कवि
अपने वर्ग के आदमी को समूह की साहसिकता से
भरता है जब कि शस्त्र अपने वर्ग-शत्रु को
समूह से विच्छिन्न करता है । यह ध्यान
रहे कि शब्द और शस्त्र के व्यवहार का व्याकरण
अलग-अलग है शब्द अपने वर्ग-मित्रों में कारगर
होते हैं और शस्त्र अपने वर्ग-शत्रु पर ।