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ये आवाज़ें कुछ कहती हैं-1 / तुषार धवल

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इन सन्नाटों में दबी फुसफुसाहट है
बुलबुले हैं शोर के
ये आवाज़ें कुछ कहती हैं

(1)
ये झुण्ड से छूटे हिरण हैं
हाशिये पर
अराजक असमानताओं की रिरियाती शिनाख़्त हैं
जिन्हें दरकिनार कर चुकी महानताएँ सन्तुष्ट हैं
 
ये दिन के जंग लगे परखच्चे हैं जो अन्धेरे की कबाड़ में गल रहे हैं इन सन्नाटों में
जिनमें बुलबुले हैं शोर के

गहरा रहा है सन्नाटा किसी अलग लिपि किसी अलग भाषा में
कहीं और लेकिन एक छुपा हुआ नकार है बहुत गहरे ---
प्रतिरोध की हर सम्भावना का
मायावी गुलाबी प्रतिरोध है उस हाथ में
जो सपने बाँट रहा है इतनी दूर सबसे कि नज़र नहीं आता

उस हाथ में खदकते तेज़ाबी बुलबुले हैं गुलाबी छटा के
उन बुलबुलों में दबा हुआ शोर है एक घुटी आबादी का

यह किसका मर्सिया है दबे सन्नाटे में
कौन लौटा है यहाँ से बिना बताए
किस भेदिये की नज़र दर्ज़ कर रही है यह सब

एक रोर करता उमड़ता है सन्नाटा और हठात् अनन्त की तिहाई पर ठहर जाता है
तबले का बाँयाँ
बजना छोड़ देता है
छोड़ देता है सन्नाटा सन्नाटा होना मरती नदी की आर्त सिसकी में फैलते मरुस्थल के रेतीले रोर में तेज़ाब जली हवा के कण्ठ में एक कविता थी जो
फँसी रह गई है
हमारी छाती में बलगम में
हमारे सपनों में हौसलों में
कोई हँसें तो खाँसने लगता है
दम फूलने लगता है बात बे-बात
इन क़ब्रों पर आनेवाला कोई नहीं रहा ये चिताएँ बुझ नहीं पातीं
रुक नहीं पाती
जली हुई हवा के जले कण्ठ में फँसी हुई
जली हुई वह कविता
और आज़ाद कल्पनाओं की कोख उबलती रहती हैं

रात उबलती रहती है जिसमें
गुमनाम बस्तियों का गलीज़ सन्नाटा सिझता रहता है
पकता रहता है गोश्त किसी परिचित का भिड़के किवाड़ों के पीछे मैली रोशनी में
एक दस्तक होती है किसी सन्नाटे की
एक हरकत किसी पेट की

एक शिशु अभी जीना चाहता है उसे जीने दो I मत बताओ उसे यह सब अभी ही
वह अचानक बूढ़ा हो जाएगा

कुरेदो इस सन्नाटे को
इसमें जीवन के मलबे मिलेंगे
जीवाष्म मिलेंगे जीवट के, कल्पना के
अवशेष पूर्ण मानव के