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कौन थकान हरे जीवन की / गिरिजाकुमार माथुर

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कौन थकान हरे जीवन की?

बीत गया संगीत प्यार का,
रूठ गयी कविता भी मन की ।

वंशी में अब नींद भरी है,
स्वर पर पीत सांझ उतरी है
बुझती जाती गूंज आखिरी

इस उदास बन पथ के ऊपर
पतझर की छाया गहरी है,

अब सपनों में शेष रह गई
सुधियां उस चंदन के बन की ।

रात हुई पंछी घर आए,
पथ के सारे स्वर सकुचाए,
म्लान दिया बत्ती की बेला
थके प्रवासी की आंखों में
आंसू आ आ कर कुम्हलाए,

कहीं बहुत ही दूर उनींदी
झांझ बज रही है पूजन की ।
कौन थकान हरे जीवन की?