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चाँद के चूरे / बुद्धिनाथ मिश्र
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बजते हैं तैमूर-तमूरे
नए वक़्त के ढहे कँगूरे।
पीते मुगली घुट्टी, खाते
बिरियानी बाबरनामे की
कहाँ-कहाँ से रकबा अपना
नक़ल ढूँढ़ते बैनामे की
देख रहे हैं आँखें मीचे
शीशमहल के ख़्वाब अधूरे ।
घर है एक, एक है वालिद
दो तन हैं इक जान, न देखें
बाहर की पहचान पे मरते
भीतर की पहचान न देखें
दो भाई सदियों के बिछड़े
कब मिलकर ये होंगे पूरे ?
वह लड़का जो गाँव छोड़कर
भाग गया था साहब बनने
मिला सउदिया में ढाबे पर
मुझको देख लगा सिर धुनने
धँसी हुई आँखों में उसकी
चाँद सितारों के थे चूरे !