गान समझता / गोपालदास "नीरज"

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मैं रोदन ही गान समझता!

उर-पीड़ा के अभिशापित दल
जो नयनों में रहते प्रतिपल-
आँसू के दो-चार क्षार कण, आज इन्हें वरदान समझता।
मैं रोदन ही गान समझता!

दुर्बल मन का अलस भाव जो-
अपने से अपना दुराव जो-
निज को ही विस्मृत कर देना आज श्रेष्ठतम ज्ञान समझता।
मैं रोदन ही गान समझता!

अपनी ये कितनी लघुता है
अपनी कितनी परवशता है-
कल जिसको पाषाण कहा था आज उसे भगवान समझता।
मैं रोदन ही गान समझता!

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