भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

किन्तु / पवन करण

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:13, 8 मार्च 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=पवन करण |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <po...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मानने की जगह उनकी बात
जब मेरे मुँह से 'किन्तु' निकला
उनसे बरदाश्त नहीं हुआ

उन्होंने अपनी बात दोहराई
इस बार भी जब मेरी जुबान ने
'लेकिन' कहा तो वह
बुरी तरह बौखला गए

गला फाड़कर चिल्लाते हुए
उन्होंने अपनी बात तिहराई
इस बार भी मैं 'मगर' कह सका

गुस्से में उन्होंने जब कहा कि वे सब
हाँ सुनने के आदी हैं तब भी
मेरे मुँह से 'जी' नहीं निकला

'किन्तु', 'लेकिन', 'मगर'
इन छोटे-छोटे शब्दों ने
उनकी हाँ सुनने की
आदत के सामने मुझे
'हाँ' 'जी' 'ठीक' तक नहीं बढ़ने दिया