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सीधी बात / वरवर राव

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लक़ीर खींच कर जब खड़े हों

मिट्टी से बचना सम्भव नहीं ।

नक्सलबाड़ी का तीर खींच कर जब खड़े हों

मर्यादा में रहकर बोलना सम्भव नहीं

आक्रोश भरे गीतों की धुन

वेदना के स्वर में सम्भव नहीं ।


ख़ून से रंगे हाथों की बातें

ज़ोर-ज़ोर से चीख़-चीख़ कर छाती पीटकर

कही जाती हैं ।


अजीब कविताओं के साथ में छपी

अपनी तस्वीर के अलावा

कविता का अर्थ कुछ नहीं होता ।


जैसे आसमान में चील

जंगल में भालू

या रखवाला कुत्ता

आसानी से पहचाने जाते हैं


जिसे पहचानना है

वैसे ही छिपाए कह दो वह बात

जिससे धड़के सब का दिल

सुगंधों से भी जब ख़ून टपक रहा हो

छिपाया नहीं जा सकता उसे शब्दों की ओट में ।


जख़्मों को धोने वाले हाथों पर

भीग-भीग कर छाले पड़ गए

और तीर से निशाना साधने वाले हाथ

कमान तानने वाले हाथ

जुलूस के लहराते हुए झंडे बन गए ।


जीवन का बुत बनाना

काम नहीं है शिल्पकार का

उसका काम है पत्थर को जीवन देना ।

मत हिचको, ओ, शब्दों के जादूगर !

जो जैसा है, वैसा कह दो

ताकि वह दिल को छू ले ।