कल का करो न ध्यान / गोपालदास "नीरज"
आज पिला दो जी भर कर मधु कल का करो न ध्यान सुनयने।
कल का करो न ध्यान!
संभव है कल तक मिट जाए, मधु के प्रति आकर्षण मन का
मधु पीने के लिए न हो, कल संभव है संकेत गगन का
पीने और पिलाने को हम ही न रहें कल संभव यह भी
पल-पल पर झकझोर रहा है, काल प्रबल दामन जीवन का
कौन जानता है कब किस पल तार-तार क्षण में हो जाए
जीवन क्या- साँसों के कच्चे धागों का परिधान सुनयने।
कल का करो न ध्यान!
क्या मालूम घिरी न घिरी कल यह मनभावन घटा गगन में
क्या मालूम चली न चली कल यह मृदु मन्द पवन मधुवन में
स्वर्ग नर्क को भूल आज जो गीत गा रही लाल परी के
क्या मालूम रही न रही कल मस्ती वह दीवानी मन में
अनमाँगे वरदान सदृश जो छलक उठा मधु जीवन-घट में
क्या मालूम वही कल विष बन, बने स्वप्न-अवसान सुनयने।
कल का करो न ध्यान!
मस्त कनखियों से साकी की जहाँ सुरा हरदम झरती थी
पायल की रुनझुन धुन में, आवाज मौत की भी मरती थी
मदिरा की रंगीन ओढ़नी ओढ़ महल में मदिरालय के
कलियों की मुस्कानों से कामना सिंगार जहाँ करती थी
आज किन्तु उस तृषा-तीर्थ के शेष चिन्ह केवल दो ही थे-
मरघट-सा सूना भयावना और भूँकते श्वान सुनयने।
कल का करो न ध्यान!
और इधर इस पथ पर तो कल घिरा मौत का था अँधियारा
टूक-टूक हो पड़ा धूल में सिसक रहा था मणिक प्याला
मधु तो दूर, गरल की भी दो बूंदें थीं न नयन के सम्मुख
लेता था उच्छवास तिमिर में पड़ा विसुध मन पीने वाला
आज अचानक ही पर जो तुम हो, मैं हूँ, मधु है, बदली है
इसका अर्थ यही है कि चाहता विधि भी हो मदुपान सुनयने।
कल का करो न ध्यान!
जीवन में ऐसा शुभ अवसर कभी-कभी ही तो आता है
प्यासे के समीप ही जब खुद मदिरालय दौड़ा जाता है
वह अज्ञानी है इस जग के मिथ्या तर्कों में पड़कर जो
खो ऐसा वरदान अन्त तक कर मल-मल कर पछताता है
व्यर्थ न मुझे बताओ इससे पाप, पुण्य की परिभाषाएँ
किन्तु डूब मधु में सब कुछ बनने दो एक समान सुनयने।
कल का करो न ध्यान!
पीकर भी यदि ध्यान रहा कल का तो व्यर्थ पिपासा मन की
व्यर्थ सुराही की गहराई, व्यर्थ सुरा सुरभित चितवन की
मदिरा नहीं, किन्तु मदिरा के प्याले में मृगजल केवल वह
पीकर जिसे न भूल सके मन, चिन्ता जीवन और मरण की
मस्ती भी वह मस्ती क्या, जो देख काल की भृकुटि-भंगिमा
भूल जाए गाना जीवन की मृदिर तृषा का गान सुनयने।
कल का करो न ध्यान!
खेल ‘आज-कल’ का यह प्रेयसि! युग-युग से चलता आता है
किन्तु कभी क्या कोई जग में सीमा कल की छू पाता है?
जीवन के दो ही दिन जिनमें आज जन्म है और मरण कल
कल की आस लिए सारा जग ओर चिता की ही जाता है
प्रिय! इससे अरमानों की इस लाज भरी क्वाँरी सी निशि को
बन जाने भी दो सुहाग की रात, छोड़ हठ, मान सुनयने।
कल का करो न ध्यान!