मैं लबादा ओढ़ कर जाने लगा 
पत्थरों की चोट फिर खाने लगा 
मैं चला था पेड़ ने रोका मुझे 
जब बरसती धूप में जाने लगा 
दश्त सारा सो रहा था उठ गया
उड़ के ताइर जब कहीं जाने लगा 
पेड़ की शाखें वहीं रोने लगीं 
अब्र का साया जहाँ छाने लगा 
पत्थरों ने गीत गाया जिन दिनों 
उन दिनों से आसमाँ रोने लगा