Last modified on 29 मार्च 2014, at 09:38

कब शौक़ मिरा जज़्बे से बाहर न हुआ था / शाकिर खलीक

सशुल्क योगदानकर्ता ३ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:38, 29 मार्च 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शाकिर खलीक |संग्रह= }} {{KKCatGhazal}} <poem> कब श...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

कब शौक़ मिरा जज़्बे से बाहर न हुआ था
था कौन सा क़तरा जो समुंदर न हुआ था

क्या याद तिरी दिल को मिरे कर गई तारीक
इक गोशा भी तो इस का मुनव्वर न हुआ था

किस तरह कोई अहद-ए-वफ़ा मुझ से करे आज
जब रोज़-ए-अज़ल में ये मुकद्दर न हुआ था

दीदार की हसरत ही हुई वजह-ए-तअस्सुफ़
क़िस्मत में मिरी हर्फ़ मुकर्रर न हुआ था

आँखों में जगह उस को मिली वाह रे तक़दीर
वो क़तरा जो ख़ुश-बख़्ती से गौहर न हुआ था

ग़र्क़ाब हुई कश्ती-ए-हस्ती लब-ए-साहिल
‘शाकिर’ तो अभी उस का शनावर न हुआ था