भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
याद एक गुनगुनाती हुई ख़ुशबू की / धनंजय सिंह
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:09, 1 अप्रैल 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=धनंजय सिंह |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKav...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(अभिनेत्री, शायरा मीनाकुमारी के लिए : निधन - ३१ मार्च,१९७२)
रोज़ रात को तीन बजे
एक ट्रेन मेरे दिल पर से गुज़रती है
और एक शहर मेरे अन्दर जाग कर सो जाता है
कहीं दूर से एक आवाज़ आती है
एक चाँद छपाक से पानी में कूद कर अँधेरे में खो गया है
समुद्र का शोर
लहरें गिनने में असमर्थ हो गया है
दिन के टुकड़े और रात की धज्जियों को
गिनना असम्भव है मेरे लिए
सिर्फ एक ख़ुशबू गुनगुनाती फिर रही है अभी भी-
'सरे राह चलते-चलते'
ख़ुशबू ठहर गई है
और एक सूरज और एक शहर की आँखों में
समुन्दर उतर आए हैं !
अब भी रोज़ रात को
एक ट्रेन मेरे दिल से गुजरती है
और एक कला की देवी अपनी कला को
अमृत पिला जाती है ठीक उसी समय !