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कलेजा कमाल / हरिऔध

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है लबालब भरा भलाई खल।
सोहती है सहज सनेह लहर।
है खिला लोक-हित-कमल जिस में।
है कलेजा सुहावना वह सर।

हैं सुरुचि के जहाँ बहे सोते।
है दिखाती जहाँ दया-धारा।
पा सके प्यार सा जहाँ पारस।
है कलेजा-पहाड़ वह प्यारा।

सब रसों की कहाँ बही धारा।
है कहाँ बेलि रीझ की ऐसी।
हैं कहाँ भाव से भले पौधे।
कौन सी कुंज है कलेजे सी।

हैं जहाँ चोप से अनूठे पेड़।
गा रहा है जहाँ उमग खग राग।
है जहाँ लहलही ललक सी बेलि।
है कलेजा लुभावना वह बाग।

मनचलापन मकान आला है।
चोचला चौक चाव वाला है।
हैं चुहल से चहल पहल पूरी।
नर-कलेजा नगर निराला है।

हैं भले भाव देवते जैसे।
हैं कहीं देवते नहीं वैसे।
हैं कहीं भक्ति सी नहीं देवी।
हैं न मन्दिर कहीं कलेजे से।

चोरियाँ हैं चुनी हुई चाहें।
चाव सा है बड़ा चतुर चेरा।
मन महाराज मति महारानी।
है कलेजा महल सरा मेरा।

है समझ को जहाँ समझ मिलती।
है जहाँ ज्ञानमान मन जैसा।
पढ़ जहाँ पढ़ गये अपढ़ कितने।
है न कालिज कहीं कलेजे सा।

हैं भरे दुख भयावने जिस में।
है जहाँ आप पाप जैसा यम।
है जलन आग जिस जगह जलती।
है नरक से न नर-कलेजा कम।

ठोसपन से ठसक गठन से हठ।
ऐंठ भी है उठान से बढ़ चढ़।
हैं गढ़ी बात की चढ़ी तोपें।
नर-कलेजा गुमान का है गढ़।

बुध्दि को कामधोनु करतब को-
जो कहें कल्पतरु न बेजा है।
है मगन मन उमंग नन्दनबन।
स्वर्ग जैसा मनुज कलेजा है।