भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खरी बातें / हरिऔध

Kavita Kosh से
Gayatri Gupta (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:41, 2 अप्रैल 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ |अ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कौन उन में बिना कसर का था।
हैं दिखाई दिये हमें जितने।
खोल दिल कौन मिल सका किस से।
हैं खुले दिल हमें मिले कितने।

ढोल में पोल ही मिली हम को।
बारहा आँख खोल कर देखा।
है वहाँ मोल जोल मतलब का।
लाखहा दिल टटोल कर देखा।

कुछ मिले काम नाम के भूखे।
कुछ मिले चाम दाम मतवाले।
कुछ पियाले पिये मिले मद के।
हैं लिये देख हम ने दिलवाले।

क्यों सके जान दिल दिलों का दुख।
बात खुभती न जो खुभे दिल में।
बात चुभती हम कहें कैसे।
चुभ गई बात तो चुभे दिल में।

बात मुँहदेखी कही जाती नहीं।
किस तरह कर चापलूसी चुप रहें।
दिल किसी का कुढ़ रहा है तो कुढ़े।
दिल यही है चाहता, दिल की कहें।

मिल सके जो न देवतों को भी।
क्यों न मेवे मिलें उसे वैसे।
मन भरे, आम रस भरे क्या हैं।
न भरे पेट को भरे कैसे।

धन बढ़े कब भला न लोभ बढ़ा।
कब हुई लाभ के लिये न सई।
प्यास है और भी अधिक होती।
पेट पानी हुए न प्यास गई।

कर कपट साधु-संत से गुरु से।
कब न कपटी बुरी तरह मूये।
एक दिन जायगा छला वह भी।
पाँव छल साथ जो छली छूये।

चाँद जैसा खिल अगर सकता नहीं।
क्यों न तो वह फूल जैसा ही खिले।
क्या छोटाई में भलाई है नहीं।
दिल करे छोटा न छोटा दिल मिले।

क्या नहीं बामन बड़ाई पा सके।
क्या न छोटी बाँसुरी सुन्दर बजे।
फूल छोटे क्या नहीं हैं मोहते।
हैं अगर छोटे करें छोटा न जी।

है किसी का दिल फफोलों से भरा।
और कोई है बहुत फूला फला।
एक की तो है उतरती आरती।
दूसरे का है उतर जाता गला।

पड़ कुदिन के बुरे झकोरों में।
पाँव किस के भला नहीं उखड़े।
कौन बस जो बिपद पड़े सिर पर।
क्या करे जो गले पड़ें दुखड़े।

मठ, महल, लाट, पुल, मदरसों को।
है अदम गोद में लिटा देता।
है कहाँ आज मय-रचे मंदिर।
है समय-हाथ सब मिटा देता।

है कलेवा काल का होता सभी।
है कहाँ वह आज लंका सा किला।
काँख में जिस की दबा दसमुख रहा।
वह बली बाली गया पल में बिला।