छुट्टियाँ होती हैं लेकिन
क्या बतायें छुट्टियों में हम
अब नहीं घर से निकलते
रंग लेकर राग लेकर
एक आदिम आग लेकर
मुट्ठियों में हम।
धूप-झरना, फूल-पत्ते
गुनगुनाती घाटियाँ
ले गईं सब कुछ उड़ाकर
सभ्यता की आंधियाँ
घर गृहस्थी दोस्त दफ्तर
बोझ सब लगते समय पर
जी रहे बस औरचारिक
चिट्ठियों में हम।
कल्पनायें प्रेम की
संवेदनायें प्रेम की
विज्ञापनों में आ गईं
सारी ऋचायें प्रेम की
थे गीत-वंशी कहकहे
क्या-क्या नहीं भोगे सहे
ईंधन हुये
कैसा समय की
भट्ठियों में हम।