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प्रेम–राग-३ / रंजना जायसवाल

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पूरी उम्र लिखती रही मै
एक ही प्रेम-कविता
जो पूरी नही हुई अब तक
क्योकि इसमे मै तो हूँ तुम ही नही रहे
क्या ऐसे ही अधूरी रह जाएगी मेरी प्रेम-कविता.
प्रेम खत्म नही होता कभी
दुःख उदासी थकन अकेलेपन को थोडा-सा और बढ़ाकर जिन्दा रहता है.
प्रेम धरती पर लहलहाती फसलों जैसा
रेशम-सी कोमल भाषा जैसा
जिसे सुनती है सिर्फ जमीन.
जेठ की चिलचिलाती धूप में नंगे सर
थी मै
और हवा पर सवार बादल की छांह से तुम
भागते रहे निरंतर
तुम्हारे ठहरने की उम्मीद में
मै भी भागती रही तुम्हारे पीछे
और पिछड़ती रही हर बार