कहता है पका हुआ फल
देह नहीं है मेरी सीमा
मुझसे है आगामी कल |
चुभो रहे हैं जैसे पिन
वृन्त पर टिके मेरे दिन
जाने कब कौन सी हवा
ले जाए मेरे पल छिन
स्वागत में आया मेरे
समय लिए त्यौरी पर बल|
हठयोगी तरु का मैं व्रत
पूर्णकाम है यह तन श्लथ
साथ -साथ चलते हैं अब
ऋतुओं के जितने तीरथ
रस अब तो पंचामृत है
भाव हो गये तुलसी दल|
अंतहीन खुशबू का छोर
मंजरियों पर उगती भोर
धुंधली आँखों देखा है
रंग चढ़ी रेशे कि डोर
फिर होगी धरती सुफला
सांचे में धूप रही ढल|