सब नया चाहती हूँ / अपर्णा भटनागर
हम सब सो जाएँ एक लम्बी नींद
हमारी तितली-आँखें बंद हो जाएँ समय के गुलाब में
और कोई इतिहास बुनता हुआ भित्ति -चित्र
निस्तब्ध आँज ले हमारी सभ्यताएँ
हम सब सो जाएँ
तब तक के लिए -
जब तक प्रकृति उन्मुक्त अपने पेड़ों से लिपटने दे वल्लरियाँ
नदियाँ भीगती रहें अजस्र पत्थरों में छिपे सोतों से
समुद्र की तलछट पर रख दें लहरें -
मूंगे, शैवाल ,खोयी मछलियाँ
ध्रुवों पर बर्फ के रहस्य ढूंढने निकल पड़ें वॉलरस
पहाड़ अपने रास्तों पर रख दें पंक्तियाँ -
चीड़, देवदार, बलूत, सनौबर की
और सफ़ेद आकाश पर हर मौसम लिख जाए अपनी पहचान
चिड़ियाँ गुनगुनी धूप के तिनकों से बुन लें नीड़
पेड़ अजानबाहु फैला दे रहे हों आशीर्वाद
और मांगलिक हवाएं बजाने लगें संतूर
हम सब सोते रहें तब तक
जब तक भूल न जाएँ अपनी बनायीं भाषाएँ
जिन्होंने हमें काटकर नक़्शे पर रखा
तब तक जब तक हमारी चमड़ी के रंगों के अंतर न गल जाएँ
और हमारे मानव होने का अनुष्ठान एक नींद में तप कर
जन्म दे एक और मनु - श्रद्धा को
आदम - हौवा को
तब तक जब तक बांसों के झुरमुट बजाने लगें बांसुरी
और हम सहसा उठकर देखने लगें
स्वप्न के बाद का दृश्य
एक शरुआत नए सिरे से
जिसमें गीतों के जिस्म
कविता की आत्मा
सृजन के अपरूप पत्थरों पर नयी लिपि गढ़ रहे हों
और एक बार फिर प्रेम अनावृत्त हो जी ले
प्राकृत पवित्रता को
इस स्निग्ध मुसकान में शिशु का जन्म हो असह्य पीड़ा से
असह्य कोख से
इस बार मैं पुनरावृत्ति नहीं
सब नया चाहती हूँ
उत्थान नहीं
सृजन चाहती हूँ
जो एक युग की नींद के बाद संभव होगा
क्योंकि हम सब भूल चुके होंगे
सोने से पहले के युग...