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परिशिष्ट-8 / कबीर

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कबीर संगत साध की दिन दिन दूना हेतु।
साकत कारी कांबरी धोए होइ न सेतु॥141॥

संत की गैल न छांड़ियै मारगि लागा जाउ।
पेखत ही पुन्नीत होइ भेटत जपियै नाउ॥142॥

संतन की झुरिया भली भठी कुसत्ती गाँउ।
आगि लगै तिह धोलहरि जिह नाहीं हरि को नाँउ॥143॥

संत मुये क्या रोइयै जो अपने गृह जाय।
रोवहु साकत बापुरो जू हाटै हाट बिकाय॥144॥

कबीर सति गुरु सूरमे बाह्या बान जु एकु।
लागत की भुइ गिरि पर्‌या परा कलेजे छेकु॥145॥

कबीर सब जग हौं फिरो मांदलु कंध चढ़ाइ।
कोई काहू को नहीं सब देखी ठोक बजाइ॥146॥

कबीर सब ते हम बुरे हम तजि भलो सब कोइ।
जिन ऐसा करि बूझिया मीतु हमारा सोइ॥147॥

कबीर समुंद न छाड़ियै जौ अति खारो होइ।
पोखरि पोखरि ढूँढते भली न कहियै कोइ॥148॥

कबीर सेवा की दुइ भले एक संतु इकु राम।
राम जु दाता मुकति को संतु जपावै नामु॥149॥

साँचा सति गुरु मैं मिल्या सबद जु बाह्या एकु।
लागत ही भुइ मिलि गया पर्‌या कलेजे छेकु॥150॥

कबीर साकत ऐसा है जैसी लसन की खानि।
कोने बैठे खाइये परगत होइ निदान॥151॥

साकत संगु न कीजियै दूरहि जइये भागि।
बासन करा परसियै तउ कछु लागै दागु॥152॥

साद्दचा सतिगुरु क्या करै जो सिक्खा माही चूक।
अंधे एक न लागई ज्यों बासु बजाइयै फूँकि॥153॥

साधू की संगति रहौ जौ की भूसी खाउ।
होनहार सो होइहै साकत संगि न जाउ॥154॥

साधु को मिलने जाइये साधु न लीजै कोइ।
पाछे पाउं न दीजियो आगै होइ सो होइ॥155॥

साधू संग परापति लिखिया होइ लिलाट।
मुक्ति पदारथ पाइयै ठाकन अवघट घाट॥156॥

सारी सिरजनहार की जाने नाहीं कोइ।
कै जानै आपन धनी कै दासु दिवानी होइ॥157॥

सिखि साखा बहुतै किये केसी कियो न मीतु।
चले थे हरि मिलन को बीचै अटको चीतु॥158॥

सुपने हू बरड़ाइकै जिह मुख निकसै राम।
ताके पा की पानही मेरे तन को चाम॥159॥

सुरग नरक ते मैं रह्यौ सति गुरु के परसादि।
चरन कमल की मौज महि रहौ अंति अरु आदि॥160॥