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फर्ज़ निभाना / निरंजन श्रोत्रिय

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जिन्हें सींचा अपने रक्त और दूध से
प्राणवायु दी जिन्हें अपने फेफड़ों की
बहते रहे शिराओं में जिनकी जिजीविषा बनकर
तैयार हुआ जो आदमकद हमारी भूख और पसीने से गुँथकर
लाँघ जाते वे एक दिन घर की दहलीज़
‘यह तो हर माँ-बाप का फर्ज़ है’ का
तमाचा मार कर।

चल देता है दरख़्त उन्मुक्त दिशा में
खींचकर जमीन से जड़ें अपनी और छाँह आकाश से
फिर बंजर हुई उर्वरा वह
समेटती है अपने सूने गर्भ में
सूखे पत्तों की चरमराहट
भूलती है हिसाब चूसे गये खनिजों का
और प्रार्थना में गाने लगती है हरीतिमा का गीत

क्या जिया जीवन!
निभाते रहे फर्ज़ केवल
पूत-सपूत की तमाम लोकोक्तियाँ नकारते
भरते रहे भविष्य निधि की गुल्लक पाई-पाई से
अपने स्वप्नों को डालकर उनकी बची हुई नींद में
देते रहे पहरा दहलीज पर रात भर।

पोंछती है वह साड़ी के उसी पल्लू से आँख की कोर
गाँठ से जिसकी निकलती थी चवन्नी चुपके से स्कूल भेजते वक्त
मारी हुई घर-खर्च से

सुनें! दुनिया के तमाम सीनियर सिटीजन्स सुनें!
कि उर्जा गतिकी के नियमों के अनुसार
यह प्रवाह होता एक दिशीय
कि ऋण अदायगी का शास्त्रोक्त तरीका भी यही
कि उनकी खुशी के फलों में ही छुपे
बीज हमारी खुशी के।

चुनें! दुनिया के तमाम बुज़ुर्गवार चुनें!
इन चहकती हवाओं के बीच

आँगन में रखी एक आराम-कुर्सी
जिसके उदास हत्थे पर टिकाकर सिर
सुना जा सके ममत्व का संगीत

दबाए सीने में
घुमड़ती सुनामी लहरों के ज्वार को
थामे कस कर लगाम रुलाई की
रखा जा रहा है अटैची में
तह कर के एक-एक फर्ज़!