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नाभि नाल से उठती धुन / विपिन चौधरी

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मैं अपनी हथेली पर कई बरसों का इंतज़ार लिए खड़ी हूँ
इंतज़ार का रुख उमड़ते-घुमड़ते घटाटोप बादलों सा वेगवान
वक़्त का मिजाज उन हवाओं-सा अनिश्चित
जो एक बार आती दिखती हैं
और दूसरे ही पल लौटने की तैयारी में लगी होती हैं
क्षितिज का अमूर्त विस्तार
कच्छ का रेतीला भार
थार का असीम सौंदर्य
हिमालय का दर्प
मेरे इंतजार के भारी-भरकम पाँवों तले दम तोड़ चुका हैं
जीवन की इस कतर-ब्योंत का कोई सानी रहा
ना ही तीन पहरों की राजदारी का
अब तो समूची कायनात
बरसों-बरस इन सातों पहरों की राजदारी करते बूढ़ी हो गई है
इस घड़ी ज़िंदगानी के पैंतरे भी
दुनियादारी-सी रंगरेजी छाप छोड़ने लगे हैं
जीवन का कोई शरणार्थी कोना मेरे नजदीक आकर
अपनी छाया छोड़ता नहीं दिखता
मैं, घने बियाबान के एक तीखे झुरमुट में
अपने एकमात्र इंतज़ार के साथ
जिंदगी कमाल पाशा की जादूगरी नहीं है
यह तो काफी पहले जान चुकी हूँ
ऊल-जलूल हरकतें करती
उछलती-कूदती-फलांगती जिन्दगी
आखिर मुझसे चाहती क्या है?
धर्म शास्त्रों की नैतिकता का पलड़ा
मेरी ओर अपनी आस्था दिखाता है
फिर भी विज्ञान के सभी अनुशासनों का दंड
मुझे हर हाल में भोगना ही है
ऊपर से इंतजार का यह भार
सहस्त्र द्वार से कुंडलिनी तक
बे-रोकटोक बहता एक सुख
जिसे बाहर का एक भी रास्ता मालूम नहीं
इस सुख ने हर बार दुनिया का मलिन चेहरा देखने से साफ इनकार कर दिया है
अब मैं शदीद प्यास में बदल गई हूँ
जब मैंने देख लिया हैं कि
भीतर का यह एकलौता सुख भी
मेरे इंतज़ार से दोस्ती गाँठ चुका है
अब मुझे एक रोशनदान चाहिए
एक नेक नीयत
और चाय की एक प्याली।