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अब आओ / विपिन चौधरी

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क्या कहूँ अब
कहने को पूरा बची भी नहीं हूं
अधूरे प्रेम की तरह अधूरी
खंडित सभ्यताओं की तरह टूटी-बिखरी हुई
गन्दी नाली की दुर्गन्ध सी बजबजाती
इस पर भी मेरे धीरज का पत्थर आसानी से घुल जाता है
ठीक उसी तरह जिस तरह
पानी की परछाईं से
बताशा पिघल जाता है
आओ कबीले के सरदारो
आओ मेरा शिकार करो
चढ़ आओ अपने नुकीले पंजों समेत
आओ कि मेरे सीने की कई पसलियां साबूत हैं अभी
आओ कि अब मैं किसी खेद का शिकार नहीं बनना चाहती
आओ मुझे नोच-निचोड़ खा जाओ
और जब खान-पान पूरा हो जाये
तो सौंप दो मेरे अस्थि-पिंजर तीखी चोंच-पंजों वाले पक्षियों को
ताकि उनके पितृ भी जम कर तृप्त हो जाएं
आओ, धरती के ये जिन्दा फरिश्ते मुझसे नहीं देखे जाते
मैं किसी शक ओ सुबह से दूर
निर्जन टीले पर
अपने स्वाभिमान को पस्त होते देखते-देखते
थक गयी हूं
आओ मेरे हथेली की रेखाओं
मुझसे पंजा लड़ाओ
तुम्हें क्या मालूम
मेरी महत्वाकांक्षा के छोटे घेरे में सिर्फ
एक सीधा-साधा प्रेम ही है
सिर्फ प्रेम
प्रेम का वो दिव्य सलोना स्वरूप
जो सांता की तरह बेहिचक मासूम है
आओ भ्रम की एक सफेद चादर मेरे सामने डाल दो
ताकि मेरा प्रेम इसी भ्रम की राह पर
चल कर वापिस लौट जाये
आओ फिर बताओ कि मैं क्या करूँ
सीखने समझने की जो अफसरशाही दलीले हैं
वो मैं अरसे पहले ही भूल गयी हूँ
आओ आओ
मेरी याद की नस इस कदर निस्तेज हो चली है|
कि मैं बार-बार याद करने को ही याद करने लगती हूँ
अब और कुछ याद नहीं
एक परछाईं भी नहीं
एक आस भी नहीं
एक सपना भी नहीं
वो सच भी नहीं जिससे एक पल अलग होते भी
मैं हिचकती थी