भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दूजी कड़ी : सिकायत / प्रमोद कुमार शर्मा

Kavita Kosh से
Neeraj Daiya (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:34, 22 अप्रैल 2014 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हाय!
कुजात म्हैं
कठै-कठै तुलगी।

हाय!
नाजोगी म्हैं
कठै-कठै खुलगी।

हाय!
राममारी म्हैं
कठै-कठै मुलगी।
.....
जे लारै मुड़’र जोवूं तो दीसै
ट्रकछाप बसां रा टायर रड़कता
कांकरां री खड्डेदार सड़क पर
धोरां ऊपर कोसां आंटै धूजै कोई धजा
उण ढाळ जीव नैं कांपता देख्यो है भीतर
तीतर भी कोनी दीसता हा जद रोही मांय
काळ पड़ग्यो हो अैड़ो लोही मांय
कै मानखो, मानखै नैं खावै हो
काळ ऊपर स्यूं तिरस बरसावै हो
लोग सुवारथी हो’र
गढ़ अर हवेल्यां रुखाळै हा
अर्थियां पर सिक्का उछाळै हा
आजादी रो मतलब घर भरणो व्हैग्यो
लोग कीं भी ढाळ घर भरै हा
अेक-दूजै स्यूं बध’र काळा करै हा

हालांकै :
मुलक आजाद व्हैग्यो हो
अर गणणाट करै हो जोस
टाबर याद करै हा गाँधी-नेहरू-बोस
भगतसिंह-सुखदेव- राजगुरु चेतावै हा
शास्त्री-पटेल-विनोबा नींद स्यूं जगावै हा-
कै आ मिली है जकी
व्यक्त हुवण री आजादी अभिव्यक्ति नैं
मूल्य दियो जासी कीं न कीं व्यक्ति नैं
कमतर नीं समझी जासी कीं भी सगती नैं
ऊंची राखणी है भगतां री भगती नैं
दिखा देवणी है गुरुता समूळी जगती नैं

पण....
मुलक आजाद हूंवतां ई
अभिव्यक्ति री टांग टूटगी
साच तो साम्हीं हो
पण भाखा खूटगी

बडा-बडा रजवाड़ां मोल चुकायो जिणरो
रुतबो बधायो सिर साटै धिण रो
बीं मायड़ भाखा नैं आजादी पछै
टोळै स्यूं टाळ दी चातरां
फसल भाखा री गाळ दी कातरां

सुसगी
मुसगी
मांय री मांय गोडी ढाळ
मायड़ भाखा करण लागी जातरा!

कीं सोझीवान जाग्या
-लाग्या
कूकण नै निज भाखा रै पेट मांय
आपरी जन्मां जूनी मायड़ बोली ठेट मांय
बंारै ताण
म्हैं कीं-कीं जीभड़ल्यां पर बसण लागी
पण साथै ई मान्यता री बात डसण लागी
संकती-संकती कदै
गीतांजळी रै तत नैं बोधूं
कदै अेकांत मांय बैठी
रामायण अर गीता रै सत नैं सोधूं
सोधूं-
पगोथिया महाजनां रा
तो कीं होंसलो बधै
-सधै
सुर कोई पांचवों टेढो-सो
सरै कोई विकट अेढो-सो
उण ढाळ म्हैं भी सौरी व्है जावूं
हुवै कोई दांतवाळो
तो गन्नै री पोरी व्है जावूं
रचण-बसण लागूं
गांव-गळियां री सुवास मांय
दीसण लागूं अंधेरै स्यूं परकास मांय
सांतरी-सांतरी हो’र चालूं पिणघट नैं
पीव कदै तो ऊंचासी म्हारै घूंघट नैं

चाल-ढाल
म्हारा अपरोगा नीं है माणस जात नै
राणियां भूली तो नीं व्हैला अजै ई
धापीबाई री बात नैं-
‘कपड़ो-लत्तो, गैंणो-गांठो, काया काचो भांडो
बैठी-बैठी के करो अे! राम भजो अे रांडो!’

संत धापीबाई अणपढ-अग्यानी ही
पण बीं रै घट मांय राम री निसाणी ही
बा निज भाखा मांय
सबद नैं अराधै ही
कळजुग नैं पोर-पोर
आंगळ्यां पर साधै ही
बा री बा भाखा
म्हारै डील री पिछाण है
कैवणै-सुणनै मांय भी सुहावै है
बोल्यां मांय अमर बोली कुहावै है
जिणरा प्राण वेदां री रिचावां है
साखी जिणरी सै दिसावां है कै
रेत स्यूं पैलां अठै समंद हो
अठैई-कठैई स्रिस्टी रो पैलो-पैलो सबद हो
भागी बेटी बिरमा री सुरसती
अठैई कर तो बैंवती ही
अर बीं रै किनारां ऊपर
भगती सुख स्यूं रैंवती ही
बीं रा दोन्यूं बेटा
ज्ञान अर वैराग्य जुवान हा
पेड़-पौधा परिन्दा भी
बंारै हूवणै पर कुरबान हा
बडी स्यांती ही, बडो तप हो
उण बखत कद ओ भड़तप हो
उण वेळा तो म्हूं संस्कारित ही
संविधान सभा स्यूं आछी तरियां पारित ही
पण पछै अेक संधिवेळा पर
लय टूटगी स्रिस्टी री
अर आभो ऊंधो व्हैग्यो
सोझीवान आदमी हो
देखतां ई देखतां चूंधो व्हैग्यो
दिन-रात आपसरी मांय बदळग्या
चाँद-तारा-सूरज सै ढळग्या
पेड़-पौधा, जीव-जंत सै बळग्या
माटी रा जीव माटी मांय रळग्या
पण भाखा....
बीज बण’र पताळां लुकगी
अर सदियां पछै
आपरो रूप बदळ’र ऊगगी
संस्कृत स्यूं ई राजस्थानी है
आ बात तो बडां-बडां मानी है

पछै भी विवाद है
म्हनैं इण बात रो
बडो गैरो विसाद है!
-विसाद है!!
-विसाद है!!!