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मिलन के दो रूप / जगदीश चतुर्वेदी
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मिले,
हम तुम मिले
ऊष्मा की तन्द्रिल दोपहरी में ।
श्वासों में नमी आई
आँखें गोचर सत्य पर भर आईं
और हम तुम देखते रहे
चुपचाप
अनाहूत क्षणों का मिलन !
मिले,
आज हम फिर मिले
अपरिचित बनकर
आँखों ही आँखों में धाराएँ बह गईं
अधरों के कोनों में सूजन उभर आई
हमें विश्वास हुआ
कि जैसे, हम तुम मिले
हमारे शव मिले ।
मूक निष्प्राण शव !