चन्द उलाहने / हरे प्रकाश उपाध्याय
1
तटस्थता के पुल पर खड़ी होकर
उसने मुझे
एक दिन
जाने किस नदी में ढकेल दिया
कोई किनारा नहीं
कोई नाव नहीं
कोई तिनका नहीं
बहता हाँफता जा रहा हूँ
लहरों के साथ
इन्तज़ार में कि कभी तो कहीं बढ़ाएगी हाथ ।
2
बहुत सारे चुम्बनों और भटकनों के बाद
उसने यकायक पूछा
दोस्ती करोगे मुझसे
क्या जवाब देता आख़िर मैं
बस चलता रहा उसके साथ
जाने किन मोड़ों पार्कों पुलों और नदियों से होते हुए
जाने कहाँ लेकर चली गई मुझे
और आगे और आगे
और कहा
यकायक
लोग यहाँ से लौट जाते हैं अक्सर
सूरज आया माथे पर
चाहो तो लौटो तुम भी
घर पर तुम्हारा इन्तज़ार हो रहा होगा बहुत
और वह अदृश्य हो गई यकायक
क्या आपको पता है उसका पता
मैं ऐसे रास्ते पर चलता जाता हूँ
जिसमें मोड़ बहुत
पर न किसी से रास्ता पूछता हूँ
न किसी रास्ते पर भरोसा करता हूँ
सपने में सोया रहता हूँ
उसकी याद में रोया करता हूँ ।
3
उसने कहा एक दिन
अब हम प्यार नहीं करते
उसके कुछ दिन पहले कहा
तुम मुझे प्यार नहीं करते
उसके पहले कहा था
काश तुम मुझे प्यार करते
वह पता नहीं क्या-क्या कहती गई
और भटकती गई
भटकता गया मैं भी
अब देखिए न
न जाने वह किस छोर गई
न जाने किस मोड़ से मुड़कर
मैं आया हूँ इधर ।
4
पहले उसने पता नहीं
कौन सा जादू किया
मैं पतंग बन गया
उसने जी भर उड़ाया मुझे
प्रेम की डोर में बाँधकर अपनी इच्छाओं के
सातवें आसमान में
फिर मुझे सुग्गा बनाया
अपने हथेलियों पर नचाती रही
और एक दिन पिंजरे से उड़ा दिया
जाओ जरा उड़ कर आओ
अब न मैं पतंग हूँ न सुग्गा
पतंगों की डोर में लगे मंझे से लहूलुहान
एक ऐसी चिड़िया
जिसे उड़ना ही नहीं आता घोसला कोई बनाना ही नहीं आता.
5
एक दिन उसने कहा
अपनी कहानी कहो
कहो कहो कहो ज़िद्द में वह कहती रही
नींद में सपने में
पार्क पर पुल पर बाग में
मैंने एक कहानी बनाई
हमारी कहानी सुनते-सुनते सो गई वह
मैं उसे सुनाता रहा सुनाता रहा
पता नहीं वह सुनते सुनते किस सपने में चली गई
फिर ढूँढ़े ना मिली मुझे ।