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बापड़ी कविता / महेन्द्र मील

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बापड़ी कविता
चौमासै, सियाळै, उन्हाळै
बिना माईतां रै टाबर ज्यूं
फिरै है
ऊभाणै पगां कादै में
कचपच होयोड़ी फिरै है,
अर मेह में भीज्योड़ी
छ्याळी ज्यूं फिरै है।
 
बापड़ी कविता
फाट्याड़ै पूरां रै
कारी लगावै
अर सींया मरती
एक खूणै में पड़ी-पड़ी
दांत कटकटावै
बिखै री मारी
इण ठंठार में पड़ी-पड़ी
आपरै करमड़ै नैं रोवै है।
 
बापड़ी कविता
मझ दोपारी
भोभरतै टीबां में फिरै है
ताती लूवां री थापां
खाय-खाय’र
आपरै तनड़ै नैं झुरै है
अर बिना धणी-धोरी रै
डांगर ज्यूं फिरै है।