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रुसि चलली भवानी तेजि महेस / विद्यापति

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रुसि चलली भवानी तेजि महेस
कर धय कार्तिक कोर गनेस

तोहे गउरी जनु नैहर जाह
त्रिशुल बघम्बर बेचि बरु खाह

त्रिशुल बघम्बर रहओ बरपाय
हमे दुःख काटब नैहर जाए

देखि अयलहुं गउरी, नैहर तोर
सब कां पहिरन बाकल डोर

जनु उकटी सिव, नैहर मोर
नाँगट सओं भल बाकल-डोर

भनइ विद्यापति सुनिअ महेस
नीलकंठ भए हरिअ कलेश

उपरोक्त पंक्तियों में कवि कोकिल विद्यापति गौरी के रूठ कर जाने का वर्णन करते हुए कहते हैं:
गौरी रूठ कर शिव जी को छोड़ विदा होती हैं. कार्तिक का वे हाथ पकड़ लेती हैं और गणेश को गोद में ले लेती हैं. शिव जी आग्रह करते हुए कहते हैं - हे गौरी, आप नैहर (मायके) न जाएँ . चाहे उन्हें त्रिशूल और बाघम्बर बेचकर ही क्यों न खाना पड़े. यह सुन गौरी कहती हैं - यह त्रिशूल और बाघम्बर आपके पास ही रहे. मैं तो नैहर जाऊँगी ही, चाहे दुःख ही क्यों न काटना पड़े . तब शिव जी कहते हैं - हे गौरी मैं आपका नैहर भी देख आया हूँ. वहाँ लोग क्या पहनते हैं ....सभी बल्कल यानि पेड़ का छाल आदि पहनते हैं. यह सुन गौरी गुस्सा जाती हैं और कहती हैं - हे शिव मेरे नैहर को मत उकटिए (शिकायत) . ऐसे नंगा रहने से तो अच्छा है लोग पेड़ का छाल तो पहनते हैं. विद्यापति कहते हैं - हे शिव, सुनिए! नीलकंठ बन जाएँ और गौरी के सारे क्लेश का हरण कर लें.