भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हम दोनों हैं दुखी / त्रिलोचन

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:15, 11 दिसम्बर 2007 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=त्रिलोचन |संग्रह=उस जनपद का कवि हूँ / त्रिलोचन }} हम दोन...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हम दोनो हैं दुखी । पास ही नीरव बैठें,

बोलें नहीं, न छुएँ । समय चुपचाप बिताएँ,

अपने अपने मन में भटक भटक कर पैठें

उस दुख के सागर में जिसके तीर चिताएँ

अभिलाषाओं की जलती हैं धू धू धू धू ।

मौन शिलाओं के नीचे दफ़ना दिये गये

हम, यों जान पड़ेगा । हमको छू छू छू छू

भूतल की ऊष्णता उठेगी, हैं किये गये

खेत हरे जिसकी साँसों से । यदि हम हारें

एकाकीपन से गूंगेपन से तो हम से

साँसें कहें, पास कोई है और निवारें

मन की गाँस-फाँस, हम ढूंढें कभी न भ्रम से ।

गाढ़े दुख में कभी-कभी भाषा छलती है

संजीवनी भावमाला नीरव चलती है ।