भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

घास / जीवनानंद दास

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:19, 22 मई 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जीवनानंद दास |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कच्चे नीम्बू के पत्तों की नरम मूँगिया रोशनी से
उजागर हो गई है पृथ्वी की भोर बेला ।

हरे बतावी नीम्बू-सी हरी घास चारों और उसकी गन्ध
हिरणों का झुण्ड उसे टूँग रहा है ।

मेरी भी इच्छा होती है घास की इस गन्ध को
हरे मद की तरह भर-भर पान करूँ ।

इस घास की देह को छानूँ
इस घास की आँख में अपनी आँखे मलूँ
घास की पाँखें मुझे पाले पोसें ।

मेरी भी इच्छा होती है ।

किसी छुपी हुई घास माँ की कोख से
घास के रूप में जन्म पा जाऊँ ...।