भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
गेंदतड़ी का खेल / समीर बरन नन्दी
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:40, 22 मई 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=समीर बरन नन्दी |अनुवादक= |संग्रह= }} ...' के साथ नया पन्ना बनाया)
गेंदतड़ी का खेल चल रहा है ..
पूरी तरह साध कर मारते हैं एक दूसरे को.. खींचकर..
लग गया तो वोट बढ़ गए
नहीं लगा तो...,
गेंद अब दूसरे के हाथ में ।
अब वह प्रहार करेगा ।
इस खेल में सभी दुश्मन है.. पैसा बहुत लगा है...
इसलिए मारना है और बचना है ।
अरे नेताजी, ई खेल गाँव माँ हम खूब खेले हैं...।